राजस्थान में कांग्रेस की सरकार पर संकट के बादल लाने वाले राज्य के उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के पार्टी में कद को समझना हो तो राज्य के 2018 में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे देख लीजिए। पार्टी को 100 सीटें मिली थीं और भाजपा को 73 सीटें। इसके बाद भी आखिर ऐसा क्या हुआ कि पार्टी को सत्ता की चाबी देने वाले पायलट पार्टी आलाकमान की नजरों से दूर हो गए। और आज नौबत ये है कि उन्हें ही पार्टी से निकाला जा सकता है। बता दें कि गहलोत ने जिस तरीके से पार्टी आलाकमान ने नजदीकियां बनाई हैं वो सचिन पायलट द्वारा 2018 विधानसभा चुनाव में की गई मेहनत से भी बड़ी हो गई है।
दरअसल सचिन पायलट और सीएम अशोक गहलोत के बीच ये कोई नहीं तकरार नहीं है। ये स्थिति लंबे वक्त से चलती चली आ रही है। अशोक गहलोत का दूसरा कार्यकाल था, साल 2013, विधानसभा चुनाव हुए तो गहलोत के नेतृत्व में पार्टी को भारी नुकसान हुआ और पार्टी ने कुल 21 सीटें ही जीत पाई। इसके बाद पार्टी में जान फूंकने के लिए आलाकमान ने तब केंद्रीय मंत्री के रूप में केंद्र सरकार में शामिल सचिन पायलट को राजस्थान की कमान दी। कांग्रेस ने युवा जोश कहे जाने वाले सचिन पायलट को (2013 से 2018) 5 साल तक उनको कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाए रखा, इस बीच कांग्रेस महासचिव के रूप में अशोक गहलोत कांग्रेस पार्टी में काम करते रहे।
सचिन पायलट ने पार्टी के लिए जी तोड़ मेहनत की
इस दौरान सचिन पायलट ने पार्टी के लिए जी तोड़ मेहनत की, जिसका नतीजा रहा कि कांग्रेस फिर से सत्ता में आ गई। पार्टी को राजस्थान में सत्ता की चाबी तो मिली लेकिन इसकी मलाई गहलोत के हिस्से में आई। बस यहीं से अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच दूरियां बढ़ती चली गई। किस्मत का खेल कुछ ऐसा भी हुआ कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में गहलोत चुनाव प्रभारी रहे जहां पर उत्तर प्रदेश को छोड़कर बाकी जगह सफलता मिली। इस सफलता के बाद अशोक गहलोत राजस्थान की राजनीति में एक बार फिर से स्थापित हो गए, जिसके बाद सचिन पायलट और अशोक गहलोत में अदावत शुरू हो गई।
आलम ये हो गया कि, गहलोत और पायलट के कद को देखते हुए कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी दोनों को एक साथ अपनी गाड़ी में लेकर घूमते थे। हर रैली में दोनों का एक साथ हाथ उठाया जाता और यहां तक की हालत यह हो गई थी कि रैली के लिए जयपुर के खासा कोठी होटल में बस लगती थी और बस में अशोक गहलोत सचिन पायलट को एक सीट पर बैठा कर कांग्रेस की रैली में ले जाया जाता था।
यहां से पलटी पूरी कहानी
यहां तक तो मामला बैलेंस वाला रहा लेकिन जब टिकट बंटवारे की बात आई तो सचिन पायलट और अशोक गहलोत में ठन गई। राज्य में पायलट के प्रभाव को देखते हुए राहुल गांधी ने सचिन पायलट को फ्री हैंड दिया, उन्होंने अपने मन मुताबिक टिकट बांटे। जिसके जवाब में राजनीति में चतुर अशोक गहलोत ने अपने लोगों को निर्दलीय खड़ा कर दिया और 11 निर्दलीय के अलावा अपने एक करीबी स्वास्थ्य राज्य मंत्री सुभाष गर्ग को राष्ट्रीय लोक दल से समझौते के नाम पर टिकट दिलवा दिया। नतीजे आने के बाद स्थिति ऐसी बनी कि कांग्रेस बहुमत से 1 सीट कम रह गई। मौका देख अशोक गहलोत ने 13 निर्दलीय और राष्ट्रीय लोक दल के विधायक के साथ कांग्रेस आलाकमान को अपनी ताकत दिखाई और इस बीच सचिन पायलट के कई करीबी चुनाव हार गए। बस यहीं से कहानी पूरी तरह पलट गई।
राहुल गांधी से नहीं होती बात
हालांकि राहुल गांधी ने काफी कोशिश की सचिन पायलट ही राजस्थान के सीएम बनें लेकिन 35 साल से राजस्थान की राजनीति में सक्रिय अशोक गहलोत विधायकों के समर्थन के मामले में सचिन पायलट पर भारी पड़ गए और सचिन पायलट को उपमुख्यमंत्री के पद पर रहकर संतोष करना पड़ा। अशोक गहलोत का अब ऐसा बोलबाला है कि राहुल और पायलट में भी दूरियां देखने को मिलने लगी हैं। इसको लेकर सचिन पायलट भी अपनी व्यक्तिगत बातचीत में अक्सर बताया करते थे कि 1 साल से ज्यादा हो गया अब राहुल गांधी उनसे बातचीत नहीं करते हैं यानी कांग्रेस में अब उनके पास न दिल्ली में जगह बची थी और न ही राजस्थान में। इसी बीच में जब प्रियंका गांधी की राजनीति में एंट्री हुई तो सचिन पायलट के लिए दुश्वारियां और बढ़ गईं और अशोक गहलोत 10 जनपथ में मजबूत होते चले गए। अब हालत ये है कि जो सचिन पायलट राजस्थान में कांग्रेस को सत्ता के शिखर तक दोबारा ले गए अब वो ही पार्टी में हाशिए पर आ गए हैं। यहां कहना सटीक होगा कि, सचिन पायलट के युवा सोच और जोश पर अशोक गहलोत का राजनीतिक अनुभव भारी पड़ा।