‘भारत-चीन’ सीमा विवाद के बीच तिब्बतियों ने ऐसा काम किया है कि, चीन की बोलती बंद हो जायेगी !

गलवान घाटी में चीन द्वारा किए गए कायरतापूर्ण कार्रवाई से न केवल भारतीयों में आक्रोश है बल्कि भारत में रह रहे तिब्बती भी इसको लेकर काफी गुस्से में हैं. तिब्बतियों शरणार्थी लगातार मोदी सरकार और भारतीय सेना की हौसला अफजाई कर रहे हैं. कल मनाली में तिब्बती शरणार्थियों का एक दल रोड के दोनों ओर खड़े होकर वहां से निकल रहे भारतीय सेना के जवानों का स्वागत किया. इस दौरान उनके हाथ में भारतीय तिरंगा और तिब्बत की स्वतंत्रता के झंडे लहरा रहे थे. बता दें कि इससे पहले शनिवार को ही अमेरिका के न्यूयार्क शहर में तिब्बतियों ने चीनी सरकार के आक्रामकता के खिलाफ जमकर प्रदर्शन किया था.

मनाली में तिब्बतियों ने भारतीय सेना की हौसला अफजाई  की

गलवान घाटी के बाद भारत में स्थित तिब्बती शरणार्थियों में चीन के प्रति काफी गुस्सा

गलवान घाटी में जो कुछ हुआ उसने न केवल देश को हिला कर रख दिया था बल्कि भारत में रह रहे तिब्बती समुदाय के लोगों को भी झकझोर कर रख दिया. दरअसल लगभग आधी सदी से लाखों तिब्बती शरणार्थी दलाई लामा के नेतृत्व में भारत में रह रहे हैं. वह यहां की संस्कृति, रहन-सहन, खानपान और वेश-भूषा में इस कदर रच-बस गए हैं की उनको अन्य भारतीयों से अलग कर पाना संभव नही है. चीन द्वारा गलवान घाटी में किए उकसावे की कार्रवाई के बाद इन तिब्बतियों को भारत के साथ ही अपनी चिंता भी सताने लगी है. यही कारण है कि वह भारतीय सेना की जमकर हौसला अफजाई कर रहे हैं. तिब्बती लोगों ने मनाली में रोड के दोनों ओर खड़े होकर वहां से गुजर रहे भारतीय सेना के जवानों की हौसला अफजाई की. इस दौरान उनके हाथों में भारतीय तिरंगा भी था.

लेह-लद्दाख और अन्य स्थानों पर भी तिब्बत के लोग चीन के खिलाफ जमकर प्रदर्शन कर रहे हैं. हिमाचल के कई जिलों से तिब्बतियों द्वारा चीन के राष्ट्रपति के पुतले फूंके जाने और चीनी उत्पाद के बहिष्कार की खबर आ चुकी है. इन लोगों का साफ कहना है कि चीन ने उनके प्रति भी ऐसी ही दमनकारी नीति का प्रयोग कर अत्याचार किया था इसलिए चीन को उसी की भाषा में जवाब देना जरुरी है.

क्या है तिब्बत का इतिहास

तिब्बत का इतिहास काफी पुराना औऱ उथल-पुथल भरा रहा है. कई राजवंशों की लड़ाईयां औऱ अधिकार के बाद 1950 में चीन ने तिब्बत के इलाकों में अपनी सेना भेजकर यहां के बड़े क्षेत्र को स्वायत्तशासी घोषित कर दिया जबकि बाकी के क्षेत्र को तिब्बत से लगती अपने अन्य राज्य के सीमाओं में मिला लिया. 1959 में तिब्बतियों ने चीन सरकार के खिलाफ विद्रोह कर दिया जिसे दबाने के लिए चीन की तानाशाही सरकार ने दमनकाऱी नीतियां अपनाने लगी. उससे बचने के लिए 14 वें दलाई लामा सहित कई तिब्बतियों को भारत में शरण लेनी पड़ी औऱ यहीं पर उन्होंने तिब्बत के लिए निर्वासित सरकार के गठन की घोषणा की. खबर की मानें तो 59 के बाद के दशकों में चीन ने वहां स्थित कई बौद्ध विहारों को नष्ट किए हैं. इस दौरान चीनी सरकार के साथ संघर्ष में हजारों बौद्धों की जान भी गई है.

हिमाचल में बड़ी संख्या में रहते हैं तिब्बती

हिमाचल के धर्मशाला में तिब्बतियों की निर्वासित सरकार का मुख्यालय हैं यहां पर दलाई लामा सहित हजारों शरणार्थी रहते हैं. दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बती लोग चीन से वर्षों से अपने अधिकार और स्वायत्तता के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं. चीन की विस्तारवादी नीति के कारण तिब्बतियों  को कई सालों तक प्रताड़ना झेलनी पड़ी. अब जबकि भारत और चीन के बीच तनाव चरम पर है तिब्बती शरणार्थी भारतीय सेना से एकजुटता दिखाकर चीन को बताना चाहते हैं वह अपनी बर्बरता और तानाशाही से बाज  आए.

भारत-चीन सीमा विवाद औऱ तिब्बत

भारत और चीन के बीच गलवान घाटी के पहले भी डोकलाम पर ऐसा ही गतिरोध हुआ था जिसमें 70 दिनों तक दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने थी. हालांकि तब कोई जानमाल की हानि नही हुई थी. दरअसल भारत और चीन के बीच सीमा विवाद लद्दाख, डोकलाम, नाथूला से होकर अरुणाचल प्रदेश के तवांग तक जाता है.

तिब्बती गुरु दलाई लामा

चीन की कम्यूनिस्ट सरकार तिब्बत के साथ ही अरुणाचल प्रदेश को भी चीन का हिस्सा मानती है. अरुणाचल में बौद्धों का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल तवांग है जिसको लेकर उसका कहना है कि वहां की संस्कृति तिब्बत से मिलती-जुलती है इसलिए तवांग उसका क्षेत्र है. इससे पहले दलाई लामा के तवांग बौद्ध मठ के दौरे औऱ इसी साल फरवरी में प्रधानमंत्री मोदी के अरुणाचल दौरे को लेकर चीन अपना विरोध दर्ज करा चुका है. यहां पर बता दें कि अरुणाचल प्रदेश की चीन से 3488 किलोमीटर की लंबी सीमा लगती है और 1938 में खीची गई मैकमोहन लाइन के अनुसार अरुणाचल प्रदेश भारत का हिस्सा है.

अब चीन को यह कौन समझाए कि यह दौर राजशाही का नही है जब अपनी सीमा का विस्तार करने के लिए एक राज्य का राजा दूसरे राज्य को अपने में मिलाने के लिए लंबी लड़ाईयां लड़ते थे.विस्तारवादी सोच आज के समय में निरर्थक हो चुका है. यह समय देश के लोगों के विकास और उनके जीवन स्तर को ऊपर ले जाने का है. बेवजह की उकसावे की नीति किसी भी तरह से तर्कसंगत नही ठहराई जा सकती.